औरंगाबाद जिले में कभी था भारत का दूसरा सबसे बड़ा कालीन उधोग, सरकार की अनदेखी से उधोग हुआ पूरी तरह से बंद
जिले के ओबरा का कालीन कभी देश-दुनिया में प्रसिद्ध हुआ करता था, लेकिन सरकार की अनदेखी व कच्चेमाल की उपलब्धता न होने से बंदी की कगार पर पहुंच गया. यहां के कारीगरों ने या तो अपना काम बदल दिया या फिर पलायन कर दूसरे प्रदेशों के कारखानों में काम करने लगे. कभी यहां से अधिक कालीन के कारखाने संचिलत हुआ करते थे, लेकिन अब मात्र दो ही चल रहे हैं. सरकार इस पर विशेष ध्यान की जरूरत है.
ओबरा का कालीन विश्वविख्यात रहा है. यहां का कालीन कभी राजा महाराजाओं के दरबार की शोभा बढ़ाता था, तो कभी राष्ट्रपति भवन में बिछाया जाता था. यहां तक इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ ने अपने राजमहल के लिए यहां से कालीन मंगवाया था. कुछ वर्ष पहले तक राष्ट्रपति भवन में यहां का कालीन बिछाया जाता था. यहां के बुनकर अली मियां की कार्यकुशलता व दक्षता के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजा गया था, जो यह बताने के लिए काफी है कि यहां का कालीन उद्योग कितना समृद्ध था.
लेकिन धीरे-धीरे कुव्यवस्थाओं व सरकार की अनदेखी के कारण बंदी की कगार पर आ गया है. फिलहाल स्थिति यह है कि अपने स्वर्णिम इतिहास को संजोए हुए ओबरा का कालीन उद्योग अपने अस्तित्व की रक्षा करने में भी सक्षम नहीं है. वर्ष 1972 में बुनकर अली मियां को राष्ट्रपति ने सम्मान देने के बाद भारत सरकार का ध्यान इस छोटे से कस्बे की ओर गया, जिसके बाद वर्ष 1974 में भारत सरकार के उद्योग मंत्रालय ने यहां प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की.
वर्ष 1986 में तत्कालीन जिला पदाधिकारी के निर्देश पर असंगठित कालीन बुनकरों को एक साथ संगठित करके पांच मार्च 1986 को महफिल- ए-कालीन बुनकर सहयोग समिति के रूप में निबंधित किया गया. वर्ष 1986 में ही डीआरडीए की आधारभूत संरचना कोष से प्राप्त सात लाख रुपये से जिला परिषद के भूखंड पर संस्था का भवन खड़ा कराया गया. पटना में शोरूम खुला, ताकि उद्योग को बाजार उपलब्ध हो सके पर अब तक उसका विधिवत उद्घाटन भी नहीं हो सका और शोरूम बंद हो गया. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यहां का निरीक्षण भी किया था पर अब तक तस्वीर नहीं बदली, अब यह उद्योग आखिरी सांसें गिन रहा है.
भदोही के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा कालीन उद्योग
भारत में हस्त निर्मित कालीन निर्माण के क्षेत्र में भदोही के बाद ओबरा का महफिल-ए-कालीन देश का दूसरा सबसे बड़ा कालीन उद्योग है. आज भी कालीन निर्माण के लिए ओबरा का नाम किताब के पन्नों में दर्ज है व सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में ओबरा का नाम कालीन उद्योग के कारण प्रचलित है. इसके बावजूद इसके उत्थान को लेकर न केंद्र और राज्य की सरकार चिंतित नहीं है.
कच्चे माल के अभाव में उधोग हुआ पूरी तरह से बंद
ओबरा का ऐतिहासिक कालीन उद्योग समेत ओबरा, नवीनगर, अंबा, मदनपुर का खादी ग्रामोद्योग सभी लगभग बंद होने की कगार पर हैं. उद्योग बंद होने से स्थानीय बुन कर आर्थिक संकट झेल रहे हैं.इस दुर्गती का प्रमुख कारण बिहार में कच्चे माल का अभाव है, जिससे हस्तकरघा उद्योग दम तोड़ रहा है. प्रबंधक राजनंदन प्रसाद कहते हैं कि यहां बुनाई के लिए धागा हरियाणा के पानीपत से आता है.कच्चे धागे की सप्लाई बेहद कम होने के कारण हस्तकरघा उद्योग बंद होने के कगार पर पहुंच गया है. ऐसे में सभी बुन कर बेरोजगारी का दंश झेल रहे है. काम नहीं मिलने के कारण पूरे दिन बैठे रहते है. बेकार फटे कपड़ों से दरी बनाते है और उसे बेचकर परिवार का पेट भरते हैं.
पहले चलते थे 200 लूम,अब बचे हैं मात्र दो
स्थापना के समय उद्योग में 33 लूम लगे थे, जहां सौ से अधिक बुनकर एक साथ काम करते थे. धीरे-धीरे विकास हुआ, तो करीब 200 लूम संचालित होने लगे पर धीरे धीरे घटकर ये 10-15 लूम बचे. फिलहाल की स्थिति यह है की अब दो चार- लूम ही चालू है हैं.
जिले में रुक गया बापू खादी के चरखा
बापू यानी महात्मा गांधी ने जिस खादी को अपने चरखे से एक पहचान दी थी वो आज जमीदोज हो चुक है. जिले के सभी ग्रामोद्योग लगभग बंदी के कगार पर हैं.ओबरा का खादी ग्रामोद्योग सह कंबल फिनिशिं प्लांट सूबे का सबसे बड़ा कंबल फिनिशिंग प्लांट है, लेकिन आज यह उद्योग लगभग बंद हो चुका है. जहाँ एक दिन में 300 कंबल तैयार होते थे, वहां अब मात्र तीन कंबल बनते हैं. तीन करोड़ की लागत से अमृतसर व पानीपत से मशीन लाकर यहां कंबल फिनिशिंग प्लांट की स्थापना हुई थी. उद्देश्य था कि यहां के बुनकर को काम मिलेगा, लेकिन यह सपना पूरा नहीं हो पाया. न बहाली होती है और न ही यहां के कर्मचारियों क वेतन मिलता है.
नवीनगर के टंडवा रोड स्थित खादी ग्रामोद्योग की स्थिति भी यही है. वर्षों से यहां उत्पादन बंद है. कच्चा धागे व ऊन की सप्लाई न होने के कारण उत्पादन नहीं हो रहा है.
नवीनगर के टंडवा रोड स्थित खादी ग्रामोद्योग के बुनकर इम्तेयाज अहमद बताते हैं कि उत्पादन न होने के कारण आर्थिक संकट झेल रहे हैं. काम का भी अभाव है. कच्चा माल नहीं आने के कारण पिछले दो वर्षों से उद्योग बंद पड़ा है.
खादी ग्रामोद्योग के प्रबंधक अमानत हुसैन बताते हैं कि काम बंद होने के कारण बुनकरों की स्थिति अच्छी नहीं है. कच्चा माल नहीं मिलने से उद्योग पूरी तरह बंद है. अधिकतर लोग खेती कर रहे हैं.
क्या कहते है जानकार
रोटी, कपड़ा और मकान इंसान की ये तीन अहम जरूरतें हैं और इनमें रोटी बेहद खास है, जिसके यहां के बुनकर अपना घर बार छोड़ कर हरियाणा के पानीपत में मजदूरी कर रहे हैं. जिले के सैकड़ों बुनकर पलायन कर बाहरी राज्यों में काम कर रहे हैं. महफिल -ए-कालीन के बुनकर अब्दुल गफ्फार की मानें तो . जिले के सैकड़ों बनुकर हरियाणा पानीपत जैसे अन्य जगहों पर काम कर रहे हैं.
बता दें महफिल-एकालीन में वर्ष 1991 में ट्रायसेम योजना के तहत करीब 450 बुनकरों को प्रशिक्षण दिया गया, किंतु यह वर्ष 1998 तक ही चला. इसके बाद संसाधनों के अभाव में इस उद्योग ने दम तोड़ दिया. वर्तमान में इसके लिए बाजार व कार्यशील पूंजी की कमी है, जिससे बुनकरों के सामने रोटी के लाले पड़े हैं और वे पलायन करने को मजबूर है.
प्रबंधक राजनंदन प्रसाद बताते हैं कि जब तक मशीन से कालीन बुनाई नहीं हो रही थी, तब तक सब कुछ ठीकठाक था, लेकिन कटक और मथुरा में जब कंपनियां सिंथेटिक कारपेट का निर्माण कर बिक्री और निर्यात करने लगीं तब हालात बदल गयी.लूम और मशीन से तैयार कालीनों के बीच श्रम लागत का बड़ा फर्क पैदा हो गया.फलतः हस्तनिर्मित कालीन का बाजार खराब हो गया.
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